जायज़ा डेली न्यूज़ लखनऊ ( जावेद ज़ैदी) दीन – ए – इस्लाम को बाक़ी रखने की ख़ातिर शहादत – ए – अज़ीम पेश करने वाले हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की याद में मनाई जाने वाली अज़ादारी में मातमी अन्जुमनों का अहम किरदार रहा है। लेकिन कोविड- 19 कोरोना वबा के इस माहौल में शहर की तमाम अन्जुमनों ने इस साल अपनी शब्बेदारियों के कार्यक्रम स्थगित कर दिये हैं। जिसका अजादारों को सख़्त मलाल है। मोहर्रम 2020 जहाँ लखनऊ के अज़ादारों के लिये मायूसकुन और बेचैन करने वाला रहा वहीं अज़ादारी की तारीख़ में यह साल सियाह बाब की तरह देखा जायगा। सवा दो महीनें की अज़ादारी ख़त्म होने के चन्द महीने गुज़रने के बाद ही आइन्दा मोहर्रम की तैयारी शुरु हो जाती है। अय्यामे अज़ा में हुसैनी अज़ादार अपने मौला को मेहमान के तौर मानते हैं और मोहर्रम में अपने घरों के अज़ाखाने को मेहमान ख़ाना मानते हुए उसकी तमाम तरह की तैयारियों को अपने दूसरे कामों से तरजीह देते हैं।इस साल कोरोना की वजह से तमाम तरह की दिक्कतों के बावजूद अपने अज़ाख़ानों को सजाने में कोई कसर न छोड़ने के बाद भी प्रशासन से मजलिस बरपा करने की इजाज़त न होने से अज़ादारों के दिल टूटे हुए थे।वहीं अन्जुमनों की शब्बेदारियाँ इस साल मुलतवी होना अज़ादारी की मरकज़ियत पर काले बादल छा जाने जैसा महसूस किया जा रहा है।हालाँकि अनलॉक – 4 की गाइड लाईन आने के बाद से इन मातमी अन्जुमनों की वजह सेअज़ादारों को कुछ राहत मयस्सर हुई है। मातमी अन्जुमनों की शब्बेदारियाँ तो मुलतवी हो गई हैं लेकिन सालाना मजलिसें जो अब अनलॉक – 5 गाईड लाईन के तहत होना शुरु हो गई हैं उनमें नौहाख़्वानी व मातम का सिलसिला शुरु हो गया है ।
अन्जुमनों के सदस्यों के आवागमन से अब शिया बाहुल्य मोहल्लों में अय्यामे अज़ा का थोड़ा सा माहौल नज़र आने लगा है । अगर यह अन्जुमनें न होतीं तो अजादारों के टूटे दिलों का अज़ाला मुम्किन नज़र नही आता। लखनऊ की अज़ादारी में जहां मातमी अन्जुमनों का मुख़तलिफ़ अज़ाख़ानो में होने वाली सालाना मजलिसों में नौहाख्वानी व सीनाज़नी करना है वहीं इन अन्जुमनों की जानिब से शब्बेदारी का एहतिमाम करना अज़ादारी में इन अन्जुमनों के अहम किरदार को उजागर करता है। इन शब्बेदारियों में शहर की बड़ी अन्जुमनें मानी जाने वाली अन्जुमनों की शब्बेदारी के साथ कुछ अन्जुमनों की “तरहई” शब्बेदारियाँ इसकी अहम वजह है। तरहई शब्बेदारी की वजह से उन शब्बेदारियों में शहर के अलावा दूर दराज़ से आने वाले अजादारों की भा बड़ी तादाद में शिरकत रहती है । उसकी अस्ल वजह उन अज़ादारों को नए- नए कलाम और नौहे सुनने को मिलते है। इसके अलावा कुछ अन्जुमनें जो तरहई शब्बेदारियों में हिस्सा नही लेती हैं वह भी अपनी अन्जुमन के शायर से नए कलाम हासिल कर के ग़ैर तरहई शब्बेदारियों में पढ़ती हैं।
इस तरह अन्जुमनों को सुनने आने वाले अज़ादारों कोआईन्दा साल फिर इन शब्बेदारियों में शिरकत का इन्तिज़ार रहता है। जो इस साल नहीं हो सका। अज़ादारी के इस मरकज़ में सबसे पहली शब्बेदारी दरगाह हज़रत अब्बास में अन्जुमन क़मर बनी हाशिम की 28 मोहर्रम को होती है। और सबसे आख़री दो शब्बेदारियाँ जो रोज़ाए काज़मैन मे अन्जुमन काज़मिया आबिदया और कर्बला दयानत उद दोला बहादुर में अन्जुमन हुसैनिया क़दीम की 8, रबिअल अव्वल को होती है। तक़रीबन 49 रोज़ अन्जुमनों की इन शब्बेदारियों नें लखनऊ को अज़ादारी का मरकज़ बना दिया है। यही वजह है कि अज़ादारी को फ़रोग देने में मातमी अन्जुमनों का अहम किरदार है।
यूँ तो आम तौर पर इमाम-ए- मज़लूम और कर्बला के शहीदों के चेहल्लुम तक अय्याम-ए- अज़ा का दौर कर्बला (इराक ) समेत व अन्य देशों में रहता है लेकिन नवाबीन अवध ने इस अज़ादारी की मुद्दत को सवा दो महीने तक बढ़ा दिया था। आठ रबिअल अव्वल को शियों के ग्यारहवें इमाम हज़रत हसन अस्करी (अ.स.) की शहादत की तारीख़ से मिला दिया था। सवा दो महीने की इस अज़ादारी के लिये शहरे लखनऊ को मरकज़यत हासिल है। यह मरकज़यत नवाबीन के बाद अन्जुमन हाए मातमी की वजह से हासिल है, यह कहा जाय तो ग़लत नही होगा। । माहे मोहर्रम के अशरा- ए- ऊला ( यानि शुरुआती दस तारीखें) तक शहर में क़दीमी अशरा-ए – मजलिस होती हैं । लेकिन आशूरा ( दस मोहर्रम ) के बाद घरों के अज़ाखानों मे बरपा होने वाली औरतों और मर्दों की सालाना मजलिसों के साथ सबसे अहम रोल मातमी अन्जुमनों का है, जो 8, रबि अल अव्वल तक ख्बेदारियों में अपनी राते गुज़ारते हैं मातम दारी के इस सिलसिले की वजह से अज़ादारी के लिये लखनऊ को मरकज़ियत हासिल है। शहर की क़दीम अन्जुमनों की तादाद तक़रीबन 70 बताई जाती है जो अब बच्चों की अन्जुमनें और क़दीम अन्जुमनों मे फाड़ होने के बाद क़दीम अन्जुमनो के नामों में गुंचा शब्दजोड़ कर और दीगर कई नई अन्जुमनें बनाई गई हैं। जिनकी तादाद अब तक़रीबन 150 बताई जाती है।