ईरान में आज हुआ राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान,सात उम्मीदवारों मे इब्राहिम राइसी के राष्ट्रपति बनने के आसार,राइसी ईरान की न्यायपालिका के प्रमुख हैं


जायज़ा डेली न्यूज़ नई दिल्ली (संवाददाता) ईरान में आज यानी 18 जून को राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान हो रहा है। इसके ज़रिए ईरान के लोग, इस्लामी क्रांति के बाद अपना आठवां राष्ट्रपति चुनने वाले हैं।नए राष्ट्रपति, ‘उदारवादी’ माने जाने वाले मौजूदा राष्ट्रपति हसन रूहानी की जगह लेंगे। हसन रूहानी 2013 में राष्ट्रपति बने थे।और लगातार दो बार इस पद पर रह चुके हैं।जिन लोगों को चुनाव लड़ने की मंज़ूरी दी गई है, उनमें पांच ‘कट्टरपंथी’ माने जाते हैं और बाक़ी दो उम्मीदवार ‘उदारवादी। जब बात पश्चिमी देशों के साथ संबंधों की हो तो ईरान की राजनीति में ‘उदारवादी’ उसे समझा जाता है जो ‘कम रूढ़ीवादी’ होते हैं।सामाजिक आज़ादी और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर जिनकी राय ‘ज़्यादा उदारवादी’ होती है, ईरान में वे ‘सुधारवादी’ कहे जाते हैं।बहुत से लोगों का ये मानना है कि ईरान में अगर किसी एक उम्मीदवार की जीत का रास्ता साफ़ है तो उनका नाम इब्राहिम राइसी है। इब्राहिम ईरान की न्यायपालिका के प्रमुख हैं। उन्हें कट्टरपंथी माना जाता है। उन्हें न केवल मौजूदा राष्ट्रपति हसन रूहानी के उत्तराधिकार की रेस में सबसे आगे देखा जा रहा है बल्कि कुछ लोग तो ये भी कहते हैं कि सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह अली खामनेई के वारिस भी शायद वही हों। ईरान के चुनाव में भाग ले रहे बाक़ी छह उम्मीदवारों के पास इब्राहिम राइसी जैसा रसूख और रुतबा हासिल नहीं है।इब्राहिम राइसी ने अपने चुनाव अभियान की शुरुआत इस वादे से की थी कि वो मुल्क के सामने खड़ी आर्थिक चुनौतियों के कारण बनी ‘निराशा और नाउम्मीदगी’ के माहौल से लोगों को उबारेंगे। रूढ़ीवादी खेमे में राइसी को खासा समर्थन हासिल है। अन्य प्रभावशाली उम्मीदवारों की दावेदारी खारिज कर दिए जाने के बाद माना जा रहा है कि इब्राहिम राइसी की राह आसान हो गई है। साल 1979 की क्रांति के बाद इब्राहिम राइसी ज्यूडीशियल सर्विस में आए थे।अपने करियर के ज्यादातर समय वे सरकारी वकील रहे और उनके इस दौर को विवादों से परे नहीं कहा जा सकता है। साल 1988 में राजनीतिक कैदियों और असंतुष्टों को सामूहिक रूप से मृत्युदंड का फैसला सुनाने वाले विशेष आयोग का वे हिस्सा रहे थे। तब वे तेहरान के इस्लामिक रिवॉल्यूशन कोर्ट में डिप्टी प्रॉसिक्यूटर के ओहदे पर थे। वे ईरान के सबसे समृद्ध सामाजिक संस्था और मशहाद शहर में मौजूद शियाओ के आठवें इमाम अली रेज़ा की पवित्र दरगाह अस्तान-ए-क़ोद्स के संरक्षक भी रह चुके हैं। ईरान में सुप्रीम लीडर की नियुक्ति करने और उसे पद से हटाने की हैसियत रखने वाले ताक़तवर संस्था ‘विशेषज्ञों की परिषद’ के वे सदस्य भी हैं।उनके अलावा मोहसिन रेज़ाई पहले भी तीन बार ईरान में राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ चुके हैं। ज़िंदगी के 66 साल देख चुके दिग्गज मोहसिन रेज़ाई को साल 1981 में इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स कॉर्प्स (आईआरजीसी) का कमांडर नियुक्त किया गया था. साल 1980 से 1988 तक चले ईरान-इराक युद्ध में मोहसिन रेज़ाई ने आईआरजीसी का नेतृत्व किया था।वे तीन बार मुल्क के राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ चुके हैं और सार्वजनिक जीवन उन्होंने कभी कोई जिम्मेदारी नहीं संभाली है। यहां तक कि साल 2000 में वे संसद के लिए चुने जाने में भी नाकाम हो गए थे. ईरान की राजनीति में उन्हें एक ‘सदाबहार उम्मीदवार’ कहा जाता है। इराक़-ईरान युद्ध के दौरान लिए गए उनके फ़ैसलों पर कुछ लोग अब भी सवाल उठाते हैं। मोहसिन रेज़ाई पर ये इलज़ाम लगाया जाता रहा है कि उन्हीं के फैसलों की वजह से सैनिकों की जानें गईं और जंग खिंचती चली गई।साल 2013 के राष्ट्रपति चुनावों में सईद जालिली तीसरे स्थान पर रहे थे। राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद के कार्यकाल में साल 2007 से 2013 तक ईरान के मुख्य परमाणु वार्ताकार के रूप में सईद जालिली को शोहरत मिली। अहमदीनेजाद की हुकूमत में वे उपविदेश मंत्री भी थे।रूढ़ीवादी खेमे के नौजवान लोगों के बीच सईद जालिली को ‘पुरानी पीढ़ी के राजनेता’ के तौर पर देखा जाता है। इसकी वजह भी है। आज की तारीख में वे जिन पदों पर रहे, सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह अली खामनेई ने उनकी सीधी नियुक्ति की थी। सईद जालिली के समर्थकों का कहना है, “उनकी आलोचना इसलिए की जाती है क्योंकि वे ‘बौद्धिक रूप से एक खुदमुख्तार शख़्सियत’ हैं और उन पर ‘भ्रष्टाचार का आरोप कभी नहीं’ लगा।”ईरान की एक्सपिडिएंसी काउंसिल (मजमा तसखिस मसलाहत निज़ाम) के मेंबर की हैसियत से उनका ख़ासा रसूख है. ये संस्था किसी विवाद की सूरत में ईरान की संसद और गार्डियन काउंसिल के बीच मध्यस्था कराती है।वे अतीत में भी ईरान के राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ चुके हैं। साल 2013 के चुनावों में वे तीसरे स्थान पर रहे थे। मोहसिन मेहरालिज़ादेह अकेले ऐसे सुधारवादी उम्मीदवार हैं जिन्हें इन चुनावों में हिस्सा लेने की इजाजत दी गई है। हालांकि वे निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से चुनाव लड़ रहे हैं।ईरान में राजनीतिक सुधार की मांग करने वाले 27 सियासी दलों और गुटों के गठबंधन रिफॉर्म्स फ्रंट की लिस्ट में उनका नाम शामिल नहीं किया गया है। इस गठबंधन के सभी नौ उम्मीदवारों की दावेदारी गार्डियन काउंसिल ने खारिज कर दी थी।ये साफ़ नहीं है कि इन चुनावों में सुधारवादी कहे जा रहे अन्य उम्मीदवारों की तुलना में मोहसिन मेहरालिज़ादेह को तरजीह क्यों दी गई।साल 2005 में राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के लिए उनका आवेदन खारिज कर दिया गया था लेकिन बाद में सुप्रीम लीडर के दखल देने के बाद उन्हें चुनाव में भाग लेने की इजाजत दी गई थी.

तब ये मामला सुर्खियों में रहा था।साल 2016 में उन्हें संसदीय चुनावों में भाग लेने से रोक दिया गया था। ईरान की राजनीति में सुधारवादियों को इस समय कोई बहुत ज्यादा शोहरत हासिल नहीं है।मौजूदा सरकार को वोट देने वाले बहुत से ईरानी लोगों का मोहभंग हो चुका है।वे देश की आर्थिक चुनौतियों के लिए मौजूदा सरकार को दोष देते हैं। साल 2015 के परमाणु करार से बाहर आने के बाद अमेरिका ने ईरान पर नए सिरे में पाबंदियां लगा दी थी. इससे ईरान की आर्थिक दिक्कतें और बढ़ गई हैं। मोहसिन मेहरालिज़ादेह के अलावा अब्दुल नासिर हिम्मती एक मात्र ऐसे ग़ैर-रूढ़ीवादी राजनेता हैं जिन्हें चुनाव लड़ने की इजाजत दी गई है. वे एक ऐसे उदारवादी टेक्नोक्रेट हैं जो साल 2018 से देश के रिजर्व बैंक का गवर्नर है।राष्ट्रपति अहमदीनेजाद और राष्ट्रपति रूहानी, दोनों ने ही अब्दुल नासिर हिम्मती को बड़े पदों पर नियुक्त किया. इससे ये संकेत मिलता है कि अब्दुल नासिर हिम्मती ईरान की राजनीति की परस्पर विरोधी राजनीतिक धाराओं के साथ भी काम कर सकते हैं।अमेरिकी पाबंदियों की मार झेल रहे ईरान के बैंकिंग सेक्टर, सेंट्रल बैंक, मुद्रा का अवमूल्यन, घरेलू चुनौतियों, विदेशी मुद्रा का संकट और अस्थिर शेयर बाज़ार, ऐसी तमाम चुनौतियों का अब्दुल नासिर हिम्मती ने सामना किया है।अब्दुल नासिर हिम्मती ने तेहरान यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पीचएडी किया है और वे वहां एसोशिएट प्रोफेसर के तौर पर पढ़ाते भी हैं।कट्टरपंथी माने जाने वाले सांसद आमिर हुसैन क़ाज़ीज़ादेह हाशमी पेशे से ईएनटी सर्जन भी हैं. वे साल 2008 से ही मशहद सीट से चुने जाते रहे हैं. मई, 2020 में उन्हें पहले डिप्टी स्पीकर के तौर पर साल भर के लिए काम करने का मौका मिला।पचास साल की उम्र के आमिर हुसैन क़ाज़ीज़ादेह हाशमी इन चुनावों में सबसे कम उम्र के उम्मीदवार हैं।अली रज़ा ज़कानी उन रूढ़ीवादी सांसदों में से हैं जिन्होंने साल 2015 के परमाणु करार की पुरजोर मुखालफत की थी। साल 2000 के दशक की शुरुआत में उन्होंने ईरान-इराक़ युद्ध में भी हिस्सा लिया था।साल 2004 से 2016 तक वे तेहरान के सांसद रहे. साल 2020 में वे एक बार फिर संसद के लिए चुने गए. राष्ट्रपति चुनावों में वे तीसरी बार हिस्सा ले रहे हैं। साल 2013 और 2017 में गार्डियन काउंसिल ने उनकी उम्मीदवारी को खारिज कर दिया था।

स्विस बैंक में जमा राशि में 286 प्रतिशत की वृद्धि की रिपोर्ट,कांग्रेस ने प्रधान मंत्री से पूछा 7 सालों में कितना काला धन वापस लाए ?
जायज़ा डेली न्यूज़ नई दिल्ली (संवाददाता) कांग्रेस ने 2020 में भारतीयों द्वारा स्विस बैंक में जमा राशि में 286 प्रतिशत की वृद्धि की रिपोर्ट को लेकर सरकार पर हमला बोला है। मीडिया रिपोर्ट्स में सामने आया है कि काले धन को वापस लाना तो दूर बल्कि इसमे अब रिकॉर्ड बढ़ोतरी दर्ज की गई है और भारतीयों की ओर से पिछले 13 साल में स्विस बैंक में जमा पैसा रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गया है।इस पर कांग्रेस ने सरकार से पूछा है कि पिछले 7 सालों में किस देश से कितना काला धन वापस लाया गया? कांग्रेस ने मांग की कि मोदी सरकार उन व्यक्तियों के नाम साझा करे जिन्होंने पिछले एक साल में स्विस बैंकों में पैसा स्थानांतरित किया है? विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने कहा कि 97 प्रतिशत भारतीय गरीब हो गए हैं, फिर ये कौन लोग हैं, जो आपदा में अवसर का लाभ उठा रहे हैं? विपक्षी दल ने आरोप लगाया कि मोदी सरकार ने काले धन के प्रवाह को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। एआईसीसी के प्रवक्ता गौरव वल्लभ ने शुक्रवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए कहा, ” 2020 के लिए स्विस बैंकों में भारतीय व्यक्तियों और फर्मों द्वारा रखे गए फंड का डेटा स्विस नेशनल बैंक (एसएनबी) द्वारा जारी किया गया है। हम ²ढ़ता के साथ कह रहे हैं कि मोदी सरकार के तहत अमीर और गरीब के बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है। सीएमआईई के अनुसार, पिछले वर्ष के दौरान करीब 97 प्रतिशत भारतीय गरीब हो गए।”उन्होंने कहा, ” 2020 के लिए स्विस बैंकों में फंड का डेटा कहानी का दूसरा पक्ष दिखाता है। 2019 की तुलना में 2020 में स्विस बैंकों में कुल जमा 286 प्रतिशत हो गया है। कुल जमा 13 साल के उच्च स्तर पर है, जो 2007 के बाद से सबसे अधिक है। बड़ा रहस्योद्घाटन बैंक फॉर इंटरनेशनल सेटलमेंट (बीआईएस) के आंकड़ों से हुआ है, जो स्विस बैंकों में व्यक्तियों द्वारा जमा को इंगित करता है। स्विस बैंकों में भारतीय व्यक्तियों द्वारा जमा 2019 की तुलना में 2020 में 39 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ”भाजपा ने 2014 में सत्ता संभालने से पहले दावा किया था कि भारतीय अकेले स्विस बैंकों में 250 अरब डॉलर (17.5 लाख करोड़ रुपये) छिपा रहे हैं। भाजपा ने यह भी वादा किया था कि वह विदेशी बैंकों में जमा काला धन वापस लाएगी और इसके परिणामस्वरूप प्रत्येक भारतीय को 15 लाख रुपये मिलेंगे। 7 साल में मोदी सरकार सिर्फ बातें करती रही है कोई कार्रवाई नहीं हुई है। सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयास और परिणाम आपस में कोई मेल नहीं खा रहे हैं।

दिल्ली दंगा:नताशा,देवांगना व आसिफ जेल से रिहा दिल्ली पुलिस की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का दखल देने से इनकार


जायज़ा डेली न्यूज़ नई दिल्ली (संवाददाता)दिल्ली हाई कोर्ट से 15 जून को ज़मानत मिलने और फिर दो दिन खींचतान चलने के बाद आख़िरकार स्टूडेंट ऐक्टिविस्ट नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ़ इक़बाल तन्हा को जेल से रिहा कर दिया गया है। दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश के बाद भी रिहाई में आ रही अड़चनों की वजह से मामला कड़कड़डूमा की अदालत में पहुंचा था, जहां 17 जून को इन्हें तत्काल रिहा करने का आदेश दिया गया था।हाई कोर्ट के आदेश के बावजूद रिहा नहीं किए जाने के पीछे पुलिस ने अभियुक्तों के घरों का वेरिफ़िकेशन न होने की बात कही थी।दिल्ली पुलिस ने इन स्टूडेंट ऐक्टिविस्ट की ज़मानत के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की थी लेकिन शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने ज़मानत रद्द करने से इनकार कर दिया है। दिल्ली में संशोधित नागरिकता (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान पिछले साल हुए दंगे के मामले में गिरफ्तार तीन छात्र कार्यकर्ताओं को दिल्ली हाईकोर्ट से मिली जमानत के खिलाफ दायर पुलिस की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट मे आज सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया कहा कि वह फिलहाल नताशा, देवांगना और आसिफ की जमानत पर दखल नहीं देगा। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में जमानत पाने वाले तीन छात्र कार्यकर्ताओं को नोटिस जारी किए। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तीन छात्र कार्यकर्ताओं को जमानत देने वाले दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसलों को मिसाल के तौर पर दूसरे मामलों में ऐसी ही राहत पाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वह उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगों के मामले में हाईकोर्ट द्वारा तीन छात्र कार्यकर्ताओं को जमानत पर रिहा करने पर इस समय दखल नहीं देगा।

एंतोनियो गुतारेस दूसरी बार बने संयुक्त राष्ट्र महासचिव


जायज़ा डेली न्यूज़ नई दिल्ली (संवाददाता) संयुक्त राष्ट्र महासभा ने शुक्रवार को एंतोनियो गुतारेस को फिर से महासचिव नियुक्त किया है। उनका दूसरा कार्यकाल 1 जनवरी 2022 से शुरू होगा। इससे पहले शक्तिशाली सुरक्षा परिषद ने 193 सदस्यीय संस्था के लिए गुतारेस के पुन: निर्वाचन की सर्वसम्मति से सिफारिश की थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा के 75वें सत्र के अध्यक्ष वोल्कन बोजकिर ने घोषणा की कि गुतारेस को फिर से संयुक्त राष्ट्र का महासचिव नियुक्त किया जाता है, उनका दूसरा कार्यकाल एक जनवरी 2022 से आरंभ होगा और 31 दिसंबर 2026 को समाप्त होगा। बोजकिर ने 72 वर्षीय गुतारेस को संरा महासभा के हॉल में मंच पर शपथ दिलवाई।इससे पहले, 8 जून को 15 सदस्यीय परिषद की बैठक में महासचिव के पद के लिए सर्वसम्मति से गुतारेस के नाम की सिफारिश वाले प्रस्ताव को अपनाया गया था।भारत ने यह प्रस्ताव पारित होने पर खुशी जाहिर की है। 15 देशों की सुरक्षा परिषद ने मंगलवार को एक बैठक करके 193 सदस्यीय महासभा के लिए दूसरी बार गुतेरस को महासचिव बनाए जाने की सिफारिश को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया है। संयुक्त राष्ट्र में एस्टोनिया के राजदूत और जून महीने में परिषद के अध्यक्ष वेन जर्गुसन ने बैठक के बाद मीडिया को बताया कि सुरक्षा परिषद ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रमुख के पद के लिए 72 वर्षीय गुतेरस के नाम की सिफारिश की है। इस फैसले के बाद गुतेरस ने भी खुशी जताते हुए कहा कि वह बहुत सम्मानित महसूस कर रहे हैं। इस बीच, संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत टीएस त्रिमूर्ति ने ट्वीट करके कहा, ‘भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को अंगीकार करने का समर्थन करता है।’

 

 

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